" लोग ना जाने किस रोग के बीमार बैठे है " by Vipin Dilwarya & lokesh pal
" लोग ना जाने
किस रोग के बीमार बैठे है "
लोग ना जाने किस रोग के बीमार बैठे है
कितने चले गए , कितने तैयार बैठे है ,
आपनों से दूरियां बना ली आज कल
गैरों से बात करने को बेकरार बैठें है ,
समय ने लोगों को बदला
लोग खुद को बदल ना सके ,
तेजी से दौड़कर निकला समय
घड़ी के कांटो को छू ना सके ,
भ्रम में खुद को रख के
दोष औरों पे हमने लगाए है ,
ठगा किसने किसको है कौने जाने
सभी हाशिए पर सवार बैठे है ,
लोग ना जाने किस रोग के बीमार बैठे है……
रोज उठकर हाथों की लकीरों को देखते है
कर्म के नहीं अपनें भाग्य भरोसे बैठे है
गर लकीरें ही होती भाग्य की विधाता,
वे लोग किस मिट्टी के है जिनके हाथ नहीं
वो आज बुलंदियों पे सवार होके बैठे है
लोग ना जाने किस रोग के बीमार बैठे है…..
ना मै था , ना मै हूं , और ना मैं रहुंगा,
जीवन रूपी जेल को समझना आसां है ,
गर हकीकत को जान ले हम
तो समय के खेल को समझना आसां है ,
किसी चमत्कार से उद्धार के
सहारे खुद को समेट लिया हमने ,
ना समझ है हम प्रभु क्षमा करना हमको
हम सब एक ही कतार में बैठे है ,
लोग ना जाने किस रोग के बीमार बैठे है…..
_लोकेश पाल & विपिन दिलवरिया
Nice poetry 👌👌
ReplyDeleteThanks brother
DeleteNice lines
ReplyDeleteThank u
DeleteSuperb poetry 👌
ReplyDeleteThanks brother
DeleteGood
ReplyDeleteगुड़
ReplyDeleteV.good brother
ReplyDeleteVery good 👌
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