" उदास निगाहें " " लोकेश पाल वास्तविक कहानी " by Vipin Dilwarya

  " लोकेश पाल वास्तविक कहानी "
   
             " उदास निगाहें "


दोस्तो यह कहानी मेरे प्रिय मित्र लोकेश पाल के जीवन में घटी वास्तविक कहानी है । और इस कहानी के माध्यम से मुझे एक बहुत अच्छी सीख मिली , और उम्मीद है कि इस कहानी से आप लोगो को भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा  । कहानी को पूरा पढ़े....

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संसार का नियम है , कि जिसके नसीब में जितना होगा उसको उतना और सही समय मिलेगा जरूर, लेकिन कभी कभी लगता है कि किसी को कुछ मिलने और ना मिलने का कारण हम बन जाते है । आप शायद मेरी बात से सहमत नहीं ना हों लेकिन एक समय की घटना मेरे लिए जीवन का एक बड़ा सबक बन गई । 

सुदर्शन न्यूज में काम करने के दौरान मेरा एक अनुभव मुझे आज तक कचोटता है । नोएडा सेक्टर 57 में स्थित सुदर्शन न्यूज में काम करने के दौरान अकसर मेरा समय सुबह 10 बजे से शाम के 6 बजे तक होता था । तो रोज आफिस जाने से पहले रास्ते में चाय नाश्ता करते हुए आफिस जाता था । एक दिन देर से उठने के कारण मै आफिस जाने मे लेट हो गया और बिना चाय नाश्ते के ही जल्दी-जल्दी आफिस पहुंच गया । आफिस पहुंचने पर पता चला के आज आफिस के सामने वाले पार्क के पास किसी कंपनी के सहयोग से भंड़ारे का आयोजन है । भंडारे में मिलने वाले प्रसाद को आफिस के लोग अपने- अपने नजरिए से देख रहे थे । किसी की आंखो में भंड़ारे के नाम से चमक थी तो किसी को भंड़ारे का प्रषाद खाने में अपनी तौहीन महसूस हो रही थी । बहरहाल कुछ लोग प्रषाद ग्रहण करने को अपना सौभाग्य मान रहे थे । कुल मिला कर इन सौभाग्य मानने वालों में मै भी एक था । और बिना किसी हिचक के मै मेरे कुछ साथी आफिस से भंड़ारा खाने निकल पड़े । अब तक दोपहर के साढे बारह बज चुके थे । हम सभी पहुंचे तो देखा लोगों की काफी भीड़ थी । कुछ लोग लाईन में लगे थे तो कुछ लाईने में लगने को तैयार थे । हम बस जाकर वहां खड़े ही हुए थे कि एक कोने से आवाज़ आई हां जी क्या हुआ? इधर उधर नजर घुमाई तो देखा हमसे पहले वहीं पर हमारे आफिस के कई लोग भंड़ारे के प्रसाद का आनंद ले रहे थे । उनके हाथों में कागज की प्लेट और प्लेट में आलू की सब्जी के साथ गर्मा-गरम पूडियां थी । मानो उनको देखकर मेरा धैर्य टूटा जा रहा था । आखिर क्या करें क्या ना करें ये भी समझ नहीं आ रहा था । यदि लाईन में लगा जाए तो समय लगेगा और नहीं लगे तो प्रसाद कैसे मिलेगा ? अखिरकार पहले से खा रहे सथियों ने एक उपाय सुझाया के भाई साहाब अगर ऐतराज ना हो तो हमारी प्लेट में ही जाकर दोबारा ले आओं दोबारा लेने के लिए लाईन में लगने की आवश्यकता नही है । सुझाव सुनते ही मै और मेरे कुछ साथियों ने ऐसा ही किया । दौबारे के लिए गए और पांच पूड़ियों के साथ सब्जी ले आए । मेने दो चार निवाले खाए ही थे कि अचानक कहीं से आवाज आई के अब कोई लाईन में मत लगना भंड़ारा खत्म हो गया है । लाईनों में लगे लोगों ने अपनी खाली प्लेटे वहीं वापस रखनी शुरू कर दी जहां से उठाई थी । अब भीड़ एक दम से कम होने लगी । कुछ ही लोग खा रहे थे जिनमें से मै भी एक था । लेकिन कुछ ही समय बाद मेने देखा के दो लोग जिनके कपड़ो से लग रहा था के दोनों या तो किसी फैक्टरी में मजदूरी का काम करते है या काम की तलाश में घूम रहे है , दोनो को हाथों में खाली प्लेटे थी । उन दोनों को भी प्रसाद नहीं मिला था दोनों की खुसुर-फुसुर आपसी बाते सुन कर पता चला के दोनों का नंबर आने ही वाला था । उन दो के पहुंचते ही सामने से सब्जी के खाली पतीला और पूड़ियों को परांत उठाई गई । उनकी आंखो में निराशा और बेइंतहाशा उदासी के आंसू थे जो दिख नही रहे थे लेकिन गिरने के कगार पर थे । दोनों ने हताश और निराश मन से उन कागज की प्लेटों के रख दिया और पानी की और बढ़ गऐ । मेरे पास अभी एक पूड़ी बची थी जिसे में खाने वाला था अब मेरी अंतर आत्मा ने मुझे झंझोर दिया । लेकिन मानो मेरी आत्मा मुझसे पूछने लगी के लोकेश अगर तू जुगाड़ के सहारे प्रसाद नही लेता तो शायद ये प्रसाद इन दोनों को मिल जाता । मुझे समझ आया के इस प्रसाद की जरूरत मुझसे ज्यादा इन दोनों को थी , जो मेरे चलते नही हो पाया । उस दिने के बाद मुझे यह समझ आया के यदि आप सक्षम और सामर्थ हे तो ऐसे स्थानों पर धेर्य रखें । आपका धेर्य किसी को खुशियां दे सकता है । और किसी के आंखों से उदासी के आंसू गिरने से रोक सकता है ।

निष्कर्ष _

अपने ऊपर धेर्य रखना चाहिए क्योंकि कभी - कभी दूसरों की आशा और निराशा हमारे हाथ में होती है , जो हमे वक्त निकलने के बाद महसूस होती है , इसलिए अपने जीवन में धेर्य जरूर रखें ।
                                               

__लोकोश पाल & विपिन दिलवरिया

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