अनपढ़ शिक्षा बेच रहें हैं ( आज के दौर पर कविता ) ___विपिन दिलवरिया
अनपढ़ शिक्षा बेच रहें हैं
लंगड़ें दौड रहें , गुंगे बोल रहें है
बहरे सुन रहें , अन्धें देख रहें है,
झूँठी कसमें झूँठे वादे , और
यहाँ सब लम्बी लम्बी फेंक रहें है
किसी को मिले या ना मिले , यहाँ
सब अपनी अपनी रोटियां सेंक रहें है
इंजीनीयर सब्ज़ी वकील पकोडें,
और यहाँ अनपढ़ शिक्षा बेच रहें है
फ़कीरी दिखाकर अमीरी लूट गये,
बनाकर फ़कीर ख़ुद माल खैंच रहें है
उसे सेवक कहुँ या व्यापारी,
जो चाय बेचते थे आज देश बेच रहें है
तमाशबीन यहाँ की जनता"दिलवरिया"
आज सब लोग तमाशा देंख रहें है
__विपिन दिलवरिया
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